उत्तराखंड

कानपुर में होता महामाई का गुणगान और गली-गली दिखता ‘बंगाल’,

अंग्रेजों के शासनकाल में तब की व्यापारिक राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) से कानपुर के तार जुड़े तो वहां के कई परिवार कानपुर आ गए। धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ी। 158 साल पहले माल रोड स्थित एबी विद्यालय में पहली बार 12 दोस्तों ने दुर्गा पूजा महोत्सव का आयोजन किया। इसके बाद कारवां यूं बढ़ा कि आज शहर की गली-गली में बंगाल नजर आता है।

कानपुर शहर में बंगाली रीति-रिवाज के तहत शहर में कभी इक्का-दुक्का दुर्गा महोत्सव पंडाल सजते थे। मां भगवती के अलौकिक स्वरूप के दर्शन को दूर-दराज के गांवों तक से लोग पहुंचते थे। धीरे-धीरे बंगाली समाज का दायरा बढ़ा। बंगाल से परिवार आए और पंडालों की संख्या बढ़ी। सामाजिक सरोकारों में सजग अपने शहर के लोग भी आगे आए।

अब शक्ति की भक्ति के मंत्र और जयकारे गूंजते हैं। मान्यता है कि मां अपने पूरे परिवार के साथ नवरात्र के इन्हीं दिनों में मायके आती हैं। ऐसे में भला कौन होगा, जो घर आई बेटी की आवभगत में कोई कसर छोड़े। दुर्गा पूजा षष्ठी तिथि से मां की आराधना से शुरू होकर नवमी तक संधि पूजन, सिंदूर खेला, बोधन पूजन, पुष्पांजलि, कुमारी पूजा और ढाक की थाप पर बंगाली नृत्य के साथ संपन्न होती है।

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