उत्तराखंड

इगास पर पहाड़ की परंपरा व लोकसंस्कृति की बिखरेगी छटा,

उत्तराखंड की संस्कृति व विरासत अपने में कई ऐसे पर्व समेटे हुए हैं। जिनका यहां की संस्कृति में खास महत्व है। इसी क्रम में दीपावली के 11 दिन बाद मनाया जाने वाला लोकपर्व इगास- बग्वाल आज उल्लास के साथ मनाया जाएगा। भैलो व पारंपरिक नृत्य के साथ पहाड़ी व्यंजनों की खुशबू गांव ही नहीं शहर में भी महक उठेगी। युवा पीढ़ी को पहाड़ की परंपरा व संस्कृति से रूबरू कराने के लिए लोकपर्व इगास पर विभिन्न सामाजिक संगठन तैयारी पूरी कर चुके हैं।

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को लोकपर्व इगास मनाया जाता है। पर्व की खास बात यह है कि आतिशबाजी करने के बजाय लोग रात के समय पारंपरिक भैलो खेलते हैं। पहले पहाड़ में लोग इसे भव्य रूप में मनाते थे लेकिन पलायन के चलते शहरों में बसे लोग इस परंपरा को आगे भी काम रखें इसलिए पहली बार विभिन्न सामाजिक संगठन इस लोकपर्व को देहरादून में भव्य रूप से मनाने की तैयारी कर रहे हैं। पहाड़ के गांव से भैलो के लिए चीड़ के छील, पारंपरिक वाद्य यंत्र मंगाए गए हैं। खास बात यह भी है कि पकोडे-स्वाले के साथ ही कई पारंपरिक व्यंजन का स्वाद मिलेगा।

उत्तराखंड विद्वत सभा के प्रवक्ता आचार्य बिजेंद्र प्रसाद ममगाईं के अनुसार, पहाड़ में एकादशी को इगास के नाम से जानते हैं। एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यह पर्व मनाया जाता है। जबकि दूसरी मान्यता यह भी है कि दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दीपावली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दीपावली मनाई थी।

इस दिन मवेशियों के लिए भात, झंगोरा का पींडू (पौष्टिक आहार) तैयार किया जाता है। उनका तिलक लगाकर फूलों की माला पहनाई जाती है। जब मवेशी पींडू खा लेते हैं तब उनको चराने वाले या गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार दिया जाता है। इस दिन घरों में पारंपरिक पकवान पूड़ी, स्वाले, उड़द की पकोड़ी बनाई जाती है। रात को पूजन के बाद सभी भैलो खेलते हैं।

इगास के दिन भैलो खेलने का विशेष रिवाज है। यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है। इसे छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल अथवा हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकडिय़ों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है।

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