
दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण का स्तर रेड जोन में पहुंच गया है। वैसे देखा जाए तो सिर्फ कैलेंडर पर साल बदला है, लेकिन कहानी वही पुरानी है। दीपावली के बाद और सर्दियों से पहले राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में सांस लेना दूभर हो रहा है। हालात अन्य शहरों के भी अच्छे नहीं हैं। लोग जहरीली हवा में सांस लेने पर मजबूर हैं। ये वे लोग हैं, जो उन शहरों में रहते हैं, जहां से सरकारी खजाने की झोली सबसे ज्यादा भरी जाती है।
हर साल बड़े-बड़े दावे किए जाने के बावजूद स्थिति में किसी सुधार के आसार नहीं दिखते। उलटे लोगों को नसीहतें दी जाने लगती हैं कि सुबह की सैर पर मत निकलो या घर के खिड़की दरवाजे बंद रखो या फिर घर से बाहर मास्क पहनकर निकलो। कोरोना महामारी की विदाई के बाद भले ही मास्क से लोगों का पीछा छूट गया हो, प्रदूषण उससे मुक्ति की राह में बाधक बना हुआ है।
प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर दिल्ली-एनसीआर में ग्रेप से लेकर तमाम आर्थिक गतिविधियों को या तो सीमित कर दिया गया है या उन्हें कुछ समय के लिए प्रतिबंधित, लेकिन इससे कुछ भला नहीं होने वाला। दिल्ली और उससे सटे शहरों के हाल बेहाल हैं। कई इलाकों में एक्यूआइ 450 के स्तर को भी पार कर गया है। वाहनों के धुएं से लेकर आर्थिक गतिविधियों की प्रदूषण बढ़ाने में अहम भूमिका है, लेकिन सर्दियों में प्रदूषण का सितम बढ़ाने में पराली यानी धान का अवशेष जलाने की घटनाओं का योगदान भी होता है। इस पर कोई विराम लगाने के बजाय यह मामला राज्यों की आपसी राजनीतिक रस्साकशी और आरोप-प्रत्यारोप में उलझ जाता है।
यूं तो प्रदूषण नियंत्रण को लेकर देश में कई कानून लागू हैं, लेकिन उनके अनुपालन में शायद ही गंभीरता दिखाई जाती है। तय मानकों के अनुसार, हवा में पीएम की निर्धारित मात्रा अधिकतम 60-100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होनी चाहिए, किंतु यह साल के अधिकांश समय यह 300-400 के पार रहने लगी है।