उत्तराखंड

 बेरोजगारी-महंगाई जैसे मुद्दों की उपेक्षा ने घटाईं भाजपा की सीटें, इस बार के बजट में हम क्या देखेंगे?

बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों की उपेक्षा ही 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीती गई सीटों की संख्या में कमी का कारण बनी, लेकिन इसका भाजपा को कोई पश्चाताप नहीं है। अब देखना है कि बजट में जनता को राहत मिल पाती है या नहीं?

अर्थव्यवस्था के कई अन्य ईमानदार शुभचिंतकों की तरह मैं भी हमेशा केंद्रीय बजट को पेश होने की पूर्व संध्या पर पढ़कर और विचार कर लिखता हूं और फिर अक्सर बजट के दिन संसद भवन से निराश होकर निकलता हूं। इसके बाद मैं लोगों के पास जाता हूं। विधायकों, अर्थशास्त्रियों, व्यापारियों, किसानों, महिलाओं, युवाओं और सबसे बढ़कर पार्टी कार्यकर्ताओं सहित विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से बात करता हूं। इनसे मुझे जमीनी हकीकत का पता चलता है, खासकर स्थानीय बाजारों में होने वाली हलचलों के बारे में। पिछले 10 वर्षों के दौरान लगभग हर साल मैंने पाया कि बजट में की गई ‘घोषणाएं’ 48 घंटों में गायब हो जाती हैं और चर्चाएं बंद हो जाती हैं।

कठिन चुनौतियां
इस निराशाजनक प्रदर्शन का मुख्य कारण बजट बनाने वालों का वास्तविकता से दूर रहना है, जिससे वे आर्थिक स्थिति का सही मूल्यांकन करने में असमर्थ रहते हैं। साल 2024-25 का बजट 23 जुलाई, 2024 को पेश किया जाएगा। आर्थिक स्थिति के सूक्ष्म मूल्यांकन से पता चलता है-

  • युवाओं के साथ-साथ परिवारों और सामाजिक शांति के लिए बेरोजगारी सबसे बड़ी चुनौती है। दर्जनभर खाली पदों के लिए हजारों की संख्या में उम्मीदवार आवेदन करते हैं। परीक्षाओं में शामिल होते हैं और इंटरव्यू देते हैं। प्रश्न पत्र लीक हो जाता है। रिश्वत दी जाती है। कुछ परीक्षाएं या इंटरव्यू अंतिम समय में रद्द होना भारी निराशा का कारण बनते हैं। इसी का परिणाम है बेरोजगारी का भयंकर रूप से बढ़ना। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर बेरोजगारी की दर 9.2 प्रतिशत है। कहने को तो कृषि, निर्माण और गिग इकोनॉमी के क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि हुई है। युवा ऐसी नियमित नौकरियां चाहते हैं, जिनमें उन्हें सुरक्षा और उचित वेतन भी मिले। इस तरह की नौकरियां सरकारी निकायों में उपलब्ध हैं। 2024 की शुरुआत में ऐसे पदों पर 10 लाख रिक्तियां थीं, लेकिन इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि केंद्र सरकार ने उन्हें भरने के लिए कोई इच्छा जताई हो। इस तरह की नौकरियां विनिर्माण क्षेत्र और वित्तीय सेवाओं, सूचना प्रौद्योगिकी, शिपिंग, हवाई परिवहन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा और शोध के क्षेत्र में पैदा की जा सकती थीं। विनिर्माण उत्पादन सकल घरेलू उत्पाद के 15 प्रतिशत पर आकर रुक गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि भारतीय प्रमोटरों ने इस क्षेत्र में निवेश करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। विनिर्माण और उच्च-मूल्य सेवाओं के तेजी से विस्तार के लिए आर्थिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन और विदेशी निवेश के साथ विदेशी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए साहसपूर्ण निर्णय लेने की आवश्यकता है।
  • महंगाई या मुद्रास्फीति दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। सरकार द्वारा मापी गई थोक मूल्य मुद्रास्फीति 3.4 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर है। सीपीआई मुद्रास्फीति 5.1 प्रतिशत और खाद्य मुद्रास्फीति 9.4 प्रतिशत है। चूंकि भारत के हर हिस्से में सामानों की सप्लाई एक जैसी नहीं है, इसलिए अलग-अलग राज्यों और जिलों के दूरदराज इलाकों में कीमतों में अंतर देखने को मिलता है। अगर भारतीय आबादी के 20 से 30 प्रतिशत को छोड़ दिया जाए तो हर कोई महंगाई से प्रभावित हुआ है। इस वजह से कुछ लोगों में नाराजगी भी है। हालांकि बजट के भाषणों और आवंटन में बेरोजगारी से निपटने की ठोस रूपरेखा तैयार की गई है। इसके लिए आप सरकार को 50 अंक दे सकते हैं।


दो अन्य चुनौतियां
शेष 50 अंक शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य लोगों की प्राथमिकताओं के तहत आवंटित किए जा सकते हैं। भारत तब तक एक विकसित देश नहीं बन सकता, जब तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जाएगा। शिक्षा, खासकर स्कूली शिक्षा का दायरा निस्संदेह बहुत व्यापक है, लेकिन उसकी गुणवत्ता खराब है। वास्तविकता यह है कि एक बच्चा औसत रूप से 7 से 8 साल स्कूल में बिताता है। इसके बाद भी करीब आधे बच्चे किसी भी भाषा में सरल पाठ पढ़ने या लिखने में असमर्थ हैं। संख्यात्मक रूप से यह चुनौतीपूर्ण है। वे किसी भी कुशल नौकरी के लिए उपयुक्त नहीं हैं। हजारों की संख्या में ऐसे स्कूल हैं, जहां एक ही शिक्षक हैं। वहीं, कई स्कूलों में बड़े पैमाने पर कक्षाओं, शौचालयों और शिक्षा सहायकों की भारी कमी है। पुस्तकालय या प्रयोगशालाओं की तो बात ही न करें। केंद्र सरकार को राज्य सरकार को मदद देते हुए इन बुनियादी समस्याओं को दूर करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, न कि एनईपी या एनटीए जैसे विवादास्पद संस्थानों को बढ़ावा देने में समय बर्बाद करना चाहिए।

स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर तो हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में विस्तार हुआ है, लेकिन गुणवत्ता पर सवालिया निशान हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, सरकारी सुविधाओं के बाद अब भी लोगों को अपनी जेब से करीब 47 फीसदी खर्च करना पड़ रहा है। निजी स्वास्थ्य सेवाएं संख्या और गुणवत्ता, दोनों में बढ़ रही हैं, लेकिन आम लोगों की पहुंच से बाहर हैं। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि डॉक्टरों, नर्सों और तकनीकी सहायकों के अलावा स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी मशीनों की भारी कमी है। स्वास्थ्य देखभाल पर केंद्र सरकार का खर्च सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में 0.28 प्रतिशत और कुल व्यय के अनुपात के रूप में 1.9 प्रतिशत तक गिर गया है, जिसके कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को लेकर जनता संतुष्ट नहीं है।

एक जोरदार चेतावनी
अन्य लोगों की प्राथमिकताएं स्थिर मजदूरी, बढ़ता घरेलू कर्ज, मजदूरी के सामान की गिरती खपत, एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी, शिक्षा ऋण का बोझ और अग्निपथ जैसी योजनाएं हैं। इन चुनौतियों के समाधान हैं- न्यूनतम वेतन 400 रुपये, कानूनी रूप से गारंटीकृत एमएसपी, शिक्षा ऋण माफी और अग्निपथ का उन्मूलन।

इन मुद्दों की उपेक्षा के कारण ही 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को अपने बूते बहुमत नहीं मिला, लेकिन इसका भाजपा को कोई पश्चाताप नहीं है। सार्वजनिक बयानों को देखें तो वह अपने मॉडल पर पुनर्विचार करने को भी तैयार नहीं है। लोगों ने जुलाई में 13 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा को जोरदार तमाचा मारा है। इंडिया ब्लॉक ने उनमें से 10 सीटों पर जीत हासिल की और उसका वोट शेयर भी बढ़ा। क्या बजट में इन चेतावनियों का जवाब मिलेगा, यह देखने वाली बात होगी।

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