उत्तराखंड

वाण में लाटू देवता मंदिर के कपाट खुले, पूजा अर्चना कर सीएम धामी ने भी लिया आशीर्वाद

सीएम ने अधिकारियों को राजजात यात्रा से संबधित कार्यों को शुरू करने के निर्देश अधिकारियों को दिए। वहीं, सीएम ने थराली विधानसभा के कुलसारी में बनने वाले उपजिला अस्पताल को भी जल्द बनाने की बात कही।

मां नंदा के भाई लाटू देवता मंदिर के कपाट सोमवार दोपहर डेढ़ बजे विधि विधान से छह माह के लिए श्रद्धालुओं के लिए खोल दिए गए। पुजारी खीम सिंह ने आंखों पर पट्टी बांधकर मंदिर में प्रवेश किया। इस मौके पर ग्रामीणों ने पारंपरिक झोड़ा, चांछड़ी की प्रस्तुति दी। साथ ही देव नृत्य किया। कपाटोद्घाटन के मौके पर मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी और पूरा क्षेत्र लाटू देवता के जयकारों से गूंज उठा।सोमवार सुबह वाण के ग्रामीण और श्रद्धालु मंदिर पहुुंचे और मंदिर में पूजा-अर्चना शुरू हुई। इसके बाद दोपहर डेढ़ बजे विधि विधान के साथ लाटू मंदिर के कपाट खोल दिए गए।पंडित उमेश कुनियाल और रमेश कुनियाल ने पूजा-अर्चना के बाद मंदिर के पुजारी खीम सिंह की आंखों पर पट्टी बांधी। इसके बाद पुजारी ने मंदिर में प्रवेश किया और पूजा अर्चना की। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार लाटू देवता को मां नंदा का धर्म भाई माना जाता है।हर साल होने वाली नंदा लोकजात और हिमालयी महाकुंभ श्रीनंदा राजजात यात्रा की यात्रा लाटू देवता की अगुवाई में होती है। इस यात्रा में सबसे आगे लाटू देवता का निशाण चलता है। इस दौरान वाण के निर्वतमान ग्राम प्रधान कृष्णा बिष्ट, हीरा पहाड़ी, हीरा बुग्याली, निर्वतमान प्रमुख डा. दर्शन दानू, पूर्व प्रमुख राकेश जोशी, गबर सिंह, पान सिंह आदि मौजूद थे।

मंदिर आज भी श्रद्धालुओं के लिए रहस्य
लाटू मंदिर की खास बात यह है कि मंदिर के अंदर पुजारी आंख पर पट्टी बांधकर पूजा करते हैं। यह मंदिर आज भी श्रद्धालुओं के लिए रहस्य बना है। मंदिर के अंदर क्या है, किसी को पता नहीं है। माना जाता है कि मंदिर में तेज चमक है ऐसे में आंखों की सुरक्षा की वजह से पट्टी बांधकर जाया जाता है। यहां मंदिर से करीब दस मीटर दूर से श्रद्धालु पूजा-अर्चना करते हैं। वाण के ग्रामीण लाटू देवता को लोग अपने इष्ट के रूप में पूजते हैं।

डोली में नहीं बैठती वाण की दुल्हन
वाण गांव की एक और विशेष परंपरा है। यहां दुल्हन डोली में नहीं बैठती है। वाण के हीरा पहाड़ी ने बताया कि यह मां नंदा की भूमि है। यहां से मां नंदा को डोली से कैलाश के लिए विदा किया जाता है। इसलिए दुल्हन डोली में नहीं बैठती है।

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